उफ! ऐसा इतिहास, कैसे क्या?
Truth of kashmir valley कश्मीर घाटी का सत्य-4: कश्मीर का पहले आदि सनातनी पुराण जानें। नीलमत पुराण के अनुसार पानी से निकला इलाका यानी घाटी। यह धारणा ज्योलॉजी-भूर्गभविज्ञान में मान्य है। और हां, कश्मीर शब्द संस्कृत से है सो, कश्य+मीर मतलब कश्यप ऋषि का सागर। नीलमत पुराण के नीले जल उद्गार से बनी घाटी, जनजीवन को यदि समझना हो तो झेलम नदी के उद्गम वाले वैरनाग मंदिर को देखें। भूगर्भ से नीले रंग की छटा में पानी का निकलना व फिर बतौर झेलम नदी पूरी घाटी को तरबतर करने का सत्य न केवल अद्भुत है, बल्कि हिंदू मान्यता की पुष्टि है। तभी घाटी सनातनी हिंदुओं की मूल तपोभूमि व देवों के देव शिव का आदि हिमालयी स्थान है। अमरनाथ से लेकर हर हिंदू घर में शिव पूजा और असंख्य शिवालयों का सत्य भी यहां के आदि सनातनी अस्तित्व को बताता है। 12वीं सदी से पहले तक घाटी हिंदू और बौद्ध धर्म का पर्याय थी। फिर जैसे भारत में दूसरी जगह हुआ वैसे ही 12वीं सदी में मुस्लिम हमलावर शाह मिर्जा का कश्मीर पर हमला हुआ और घाटी में इस्लामी हुकूमत की स्थापना। फिर लगभग छह सौ साल लगातार इस्लामी हुकूमत। 14वीं सदी की शुरुआत में सुल्तान सिकंदर और फिर मुगलई राज के औरंगजेब के वक्त में घाटी में तलवार के खौफ से धर्म परिवर्तन का जो ‘प्रलय’ आया उसमें हिंदू भागे या धर्म परिवर्तन को मजबूर हुए।
कश्मीर घाटी का सत्य-3: सत्य भयावह और झांकें गरेबां!
घाटी के तब हिंदुओं में कश्यप गोत्र के पंच गौड़ ब्राह्मण समूह में सारस्वतों की बहुलता थी। इनमें सन् 1820 तक धर्म परिवर्तन होता रहा। 1820 में सिख राजा रणजीत सिंह ने घाटी पर कब्जा कर हिंदुओं का जीना आसान बनाया। सिख राज के पराभव के बाद पैसा लेकर अंग्रेजों ने जम्मू के हिंदू डोगरा गुलाब सिंह को कश्मीर घाटी बेची। घाटी में मौसम अंग्रेजों के लिए स्वर्ग था मगर कमाई-आबादी में मरा-भूखा-बेजान इलाका था तो महाराजा को बेच रेजीडेंसी से निगरानी रखी।
इस क्रम में गौरतलब बात है कि 12वीं सदी से 18वीं सदी के छह सौ सालों के धर्मांतरण के बावजूद घाटी कभी हिंदुओं से खाली नहीं हुई। (जबकि अब है!) 1901 में ब्रितानियों ने जब जनगणना कराई थी तो रिकार्ड में लिखा है– दस हजार लोगों की आबादी में 524 हिंदू हैं। मतलब 5.24 प्रतिशत हिंदू। तभी एक अंग्रेज ने 1947 में घाटी में छह प्रतिशत हिंदुओं की बात कही थी। सन् 1901 में घाटी की कुल आबादी 11 लाख 57 हजार थी। सवाल है सुल्तान सिकंदर और अफगान दुर्रानी के आंतक के बावजूद हिंदू बचे कैसे रहे और जो बचे (खास कर कश्मीरी पंडित) वे कैसे घाटी में जमींदार, पढ़े-लिखे व दरबार में खास बने रहे? अपने को वजह यह समझ आती है कि घाटी में क्योंकि पांच-दस लाख लोग ही थे और आबादी छितरी हुई थी तो औरंगजेब के बस में भी पूरा सफाया संभव नहीं था। दूसरे मुस्लिम हमलावर घोड़ों से आए लेकिन तलवार के अलावा उनके पास क्या समझ थी? हालांकि मुगल समझदार थे (औरगंजेब के अपवाद को छोड़ कर) तो हिंदुओं का स्पेस बना रहा। जो मुसलमान बने वे भी मूल पढ़े-लिखे हिंदू थे तो धर्मांतरित और हिंदू पंडितों का साझा बना रहा।
कश्मीर घाटी का सत्य-2: साझा खत्म, हिंदू लुप्त!
इसी में कट्टर इस्लाम की बजाय सूफीवाद फैला। लिखत-पढ़त-लैंड रिकार्ड, अर्जी लिखने (मतलब ‘लाम, मीम, नून’) आदि से पंडित मजे से गुजर करते थे। जिनमें धर्म-शिक्षा की अधिक जिद्द व समझ थी वे कश्मीरी पंडित अफगान दुर्रानी आदि के वक्त घाटी को छोड़ कर दिल्ली और बाकी जगह जा बसे। तभी घाटी में नहर के किनारे रहने से नेहरू बने कश्मीरी पंडित 17वीं-18वीं सदी पहले की घाटी बाहर की वंशावली लिए हुए हैं। सो, कश्मीरी पंडितों का भागना या प्रवासी बनना सदियों से है। सत्य यह भी है कि बाहर जाने से कश्मीरी पंडितों की बुद्धि खिली और हर दौर में ये पंडित घाटी से बाहर देश-विदेश सब जगह बुद्धि बल से खुशहाल हुए। इसका प्रमाण है कि घाटी से, पाक अधिकृत मीरपुर-मुज्जफराबाद से गए कश्मीरी मुसलमानों व कश्मीरी पंडितों की ब्रिटेन में (मेरा निज अनुभव है) तुलना करें तो कश्मीरी मुस्लिम, जहां टैक्सी चलाते मिलेंगे वहीं कश्मीरी पंडित डॉक्टर, प्रोफेसर और कंपनी सीईओ आदि!
बहरहाल घाटी की भौगौलिक मुश्किलों, कम-छितराई आबादी में पढ़ाई-लिखाई-दरबार में अर्जी आदि से कश्मीरी पंडितों का उपयोग रहा और छह सौ साल की हमलावर बादशाही के बावजूद वे बचे रहे। पंडितों ने चतुराई, चालाकी से मुसलमानों में सूफीवाद को हवा दी होगी। इसका कुल असर था जो सर्द मौसम, धीमी रफ्तार की तासीर में घाटी का जीवन झेलम की मंद गति जैसे बहता हुआ रहा।… सूफी दर्शन का सूफियाना और साझा चुल्हे में अपनी-अपनी छीना-झपटी।… तू तेरे धर्म में जी मैं मेरे धर्म में! यही है ‘कश्मीरियत’ की धारणा।
समाज की आर्थिक रचना का जहां सवाल है तो जो बुद्धि, पैसा और सत्ता लिए हुए होते हैं वे ही सूत्रधार या शोषक और एलिट होंगे। मुझे पिछले डेढ़ सौ सालों की घाटी की जो समाज रचना समझ आई है उसमें मेरा मानना है कि मुस्लिम पंडित और हिंदू पंडित की समाज रचना में, शोषण और लीडरशीप के नीचे जात व्यवस्था की गोपनीय साठ-गांठ रही। डेढ़ सौ सालों में आम अवाम यदि भटका, उसका शोषण हुआ तो ऐसा सिर्फ पचास-सौ लोगों की खुराफातों से है!
कश्मीर घाटी का सत्य-1 घाटी: इस्लाम का कलंक नहीं तो क्या?
तीन टर्निंग प्वाइंट हैं। एक, 1846 में जम्मू के हिंदू महाराजा गुलाब सिंह द्वारा अंग्रेजों को 75 लाख रुपए देकर अमृतसर में एक करार से कश्मीर घाटी को खरीदना। घाटी की वह खरीद थी सो, महाराजा ने स्वभाविक तौर पर माना कश्मीर घाटी मेरी प्राइवेट प्रॉपर्टी है। पैसा दिया है तो उन्हें अधिक से अधिक कमाई करनी थी। घाटी की पूरी जमीन की जागीरें बना कर उनकी जागीरदारियां बेचीं। एक रिकार्ड अनुसार 1865-1872 में 45 जागीरदार थे। इनमें पांच मुसलमान और बाकी हिंदू, अधिकांश डोगरा व कुछ कश्मीरी पंडित। मुसलमान से तब हर तरह से वसूली हुई। झेलम नदी तब नावों से ट्रांसपोर्ट का अकेला जरिया थी। उससे लोग सामान लाते-ले जाते जैसे वैरनाग से श्रीनगर चावल, पशु, नमक आदि तो उसके लिए नदी का टोल टैक्स और उसका हिसाब संभालते हुए कश्मीरी पंडित। खेती में जमीन का मुसलमान को मालिकाना नहीं और एक-चौथाई या आधी फसल की लगान तो लोगों से फ्री में बेगारी भी। जमीन से मुसलमान की वह बेदखली बाद में शेख अब्दुल्ला की राजनीति का बड़ा आधार बनी। आज सन् 2021 में घाटी में मुसलमानों ने जमीन-जायदाद हिंदू को नहीं लेने देने की ठान ली है तो ऐसा पुश्तैनी मनोविज्ञान से है। इसी से आज की समाज-व्यवस्था में भारत विरोधी सर्वाधिक घातक लोकल कारिंदा मुस्लिम पटवारी-तहसीलदार है। इनके रहते हिंदू का प्रॉपर्टी खरीद सकना, मालिकाना हक बहाल करा सकना, नाम चढ़ना, इंतकाल होना लगभग नामुमकिन माना जाता है।
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दूसरा टर्निंग प्वाइंट 1930 के आसपास का है। जम्मू के डोगरा राजा की सामंती व्यवस्था में ज्यादतियों की खबरें बनीं तो एक तरफ घाटी में असंतोष को हवा लगी और शेख अब्दुल्ला का उदय हुआ वहीं उसकी गू्ज ठेठ इलाहाबाद में नेहरू परिवार के जवाहरलाल नेहरू व महात्मा गांधी तक जा पहुंची। कांग्रेस ने महाराजा पर दबाव बनाया। वह राजा हरि सिंह और कांग्रेस के बीच खटास की शुरुआत थी। चौतरफा दबाव में अप्रैल 1932 में महाराजा ने ग्लांसी आयोग (Glancy Commission) बनाया। उसने प्रजा सभा के नाम से विधान सभा के गठन की सिफारिश की। 75 सदस्यों के सदन में 15 दरबार के लोग, 33 जनप्रतिनिधि और बाकी महाराजा द्वारा मनोनीत। 33 चुनावी सीटों में 21 मुसलमान, दस हिंदू और दो सीटें सिख के लिए आरक्षित। इस नई शुरुआत में मौका देख कर श्रीनगर में शेख अब्दुल्ला व चौधरी गुलाम अब्बास ने सूबे के मुसलमानों के हक की लड़ाई के लिए ऑल जम्मू-कश्मीर मुस्लिम कांफ्रेंस नाम की पार्टी बनाई। नाम नोट करें, ‘मुस्लिम’ शब्द। उधर भूमि-खेती सुधार के दबाव में घाटी में परिवर्तन के सिलसिले में कुछ सुधार हुए। महाराजा ने पांच हजार से दस हजार रुपए के सालाना रेवेन्यू के मोल वाली 20 जागीरें बदलीं। जिन नए लोगों को जागीर दी गई उसमें भी 12 हिंदू (अधिकांश राजपूत-डोगरा) थे और दो मुसलमान। खेती करने वाले मुसलमान को बिना जमीनी हक के (खरीदना-बेचना नहीं) फसल का अधिक हिस्सा मिलने लगा। मगर मालिक जागीरदार जम्मू का हिंदू डोगरा और लिखत-पढ़त करने वाला कश्मीरी पंडित।
इस मोड़ पर नोट रखने वाली बात है कि राजा ने राजपूत डोगराओं को घाटी में जागीरें देकर वसूली के साथ यह रणनीति सोची होगी कि कश्मीरी पंडित लड़ नहीं सकते। डोगरा लड़ लेंगे (1947 में इसी में हिंदुओं ने धोखा गया)। महाराजा ने एक तरफ हिंदू सैनिक ताकत में घाटी में डोगरा राजपूतों का तानाबाना बनाया। वहीं राजा ने सभी प्रमुख मंदिरों को संभालने की व्यवस्था भी डोगराओं को दी। समझ सकते हैं इससे मूल कश्मीरी पंडित और बाहरी डोगराओं में खुन्नस, ईर्ष्या बनी होगी। इसी के चलते घाटी के कश्मीरी पंडितों के लिए पुराने पंडित याकी मुस्लिम शेखों से केमिस्ट्री बनाए रखना सहज था। मुस्लिम शेख और कश्मीरी पंडित की केमिस्ट्री में साझा कश्मीरी भाषा से था तो जात से भी था। इसे मैं आगे बताऊंगा कि घाटी के मुसलमान आज भी कैसे हिंदू धर्म की जातियों में बंटे हुए हैं और इनमें भी ऊंची जात-छोटी जात की हकीकत में परस्पर शादियां नहीं होती हैं।
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सो, 1931 से 1941 के वक्त में वह राजनीति हुई, जिससे शेख अब्दुल्ला और जवाहरलाल नेहरू में वह भाईचारा बना, जिसमें हिंदू महाराजा विलेन था। नतीजतन 1946-1948 के संक्रमण काल का वह तीसरा टर्निंग प्वाइंट बना, जिससे आगे 75 सालों में वह सब हुआ, जिसका परिणाम आज की घाटी है। इस पर सोमवार को।