कारगिल विजय दिवस : सबसे ऊंची चोटी से दुश्मन को मार भगाया

कमांडिंग ऑफीसर कर्नल अनिल भाटिया ने सुनाई हनीफुद्दीन और अपनी बटालियन की वीरगाथा

कारगिल विजय दिवस : सबसे ऊंची चोटी से दुश्मन को मार भगाया

विस्तार
कारगिल विजय दिवस के 22 साल पूरे होने पर 11वीं बटालियन राजपूताना रायफल के कमांडिंग ऑफीसर कर्नल अनिल भाटिया ने शहीद हनीफुद्दीन और अपनी बटालियन के सिपाहियों की बीरगाथा को साझा किया। किस प्रकार दिल्ली के कैप्टन हनीफुद्दीन ने शहीद होने से पहले सियाचिन ग्लेशियर की सबसे ऊंची चोटी पर कब्जा जमाए बैठे पाकिस्तानी दुश्मनों की सूचना अपनी बटालियन को भेजी। इसके बाद बटालियन ने प्वाइंट 5590 (करचन ग्लेशियर) पर बैठे दुश्मनों को वहां से मार भगाया। 


सेवानिवृत्ति के बाद ग्रेटर नोएडा में रह रहे कर्नल अनिल भाटिया ने 1999 में मई से जुलाई के बीच हुए कारगिल युद्ध को याद किया। जब उन्हें शियाचिन ग्लेशियर एक्सटेंशन (करचन ग्लेशियर) में चोर वाटला और तुरतुक के बीच दुश्मनों के छुपे होने की सूचना मिली। दुश्मनों की सही स्थिति का पता लगाने के लिए उन्होंने कैप्टन हनीफुद्दीन के नेतृत्व में एक टुकड़ी को भेजा। कैप्टन हनीफुद्दीन ने 17 किलोमीटर भीतर 19000 फुट की ऊंचाई पर जाकर प्वाइंट 5590 पर दुश्मनों के होने की सूचना भेजी। यह सबसे ऊंची जगह थी जहां पर पाकिस्तानी सेनिकों ने कब्जा जमाया हुआ था। यहां से पाकिस्तान और भारत की तरफ साफ देखा जा सकता था। पाकिस्तानियों ने मौका पाते ही कैप्टन हनीफुद्दीन और बाकी टुकड़ी पर हमला कर दिया। इस हमले में कैप्टन हनीफुद्दीन और उनके साथ नायब सुबेदार मंगेश और रायफल मैन प्रवेश शहीद हो गए। 

वीरगति से पहले कैप्टन हनीफुद्दीन ने अपनी बटालियन को जो सूचना दी थी उसी के आधार पर 11वीं बटालियन राजपूताना रायफल ने प्वाइंट 5590 पर हमला किया। इस लड़ाई में यूनिट ने अपना बदला पूरा किया। पाकिस्तानी नॉर्दन लाइट इंफेंट्री के 7 फौजी मारे गए। देश के एक बहादुर सिपाही हवलदार मान सिंह भी शहीद हुए। उधर राजपूताना रायफल के वीर सैनिकों ने पाकिस्तानियों के 17 हथियार भी पकड़े। आज भी वो हथियार सेना के संग्रहालय में रखे गए हैं। कर्नल अनिल भाटिया ने बताया कि कैप्टन हनीफुद्दीन से पहले प्वाइंट 5590 पर कोई नहीं गया था, इसलिए उस जगह का नाम अब सब सेक्टर हनीफुद्दीन रखा गया है। 

ऑपरेशन अमर शहीद
कारगिल युद्ध में 7 जून को शहीद हुए कैप्टन हनीफुद्दीन और उनके साथियों का पार्थिव शरीर भारतीय सेना वापस नहीं ला पाई थी। क्योंकि दुश्मन लगातार ऊपर से फायरिंग कर रहा था। लेकिन 11वीं बटालियन राजपूताना रायफल ने जब दुश्मनों को मार भगाया इसके बाद अपने शहीदों का पार्थिव शरीर वापस ढूंढ़कर लाने के लिए ऑपरेशन अमर शहीद शुरू किया। आखिरकार 17 जुलाई को शहीदों का पार्थिव शरीर करचन ग्लेशियर से ढूंढ़कर वापस लाया जा सका। इन उपलब्धियों के लिए यूनिट को सम्मानित किया गया।

हनीफ की काबिलियत के सब थे कायल
कर्नल अनिल भाटिया बताते हैं कि लद्दाख में वह 11वीं बटालियन राजपूताना रायफल के कमाडिंग ऑफीसर के तौर पर तैनात थे। तभी आईएमए से पासआउट कैप्टन हनीफुद्दीन (उम्र करीब-24 वर्ष) लद्दाख उनकी यूनिट में आए। वह उत्साही और खुश रहने वाले इंसान थे। हर गतिविधि में बढ़चढ़कर हिस्सा लेना उनकी आदत थी। अपने जेसीओ और जवानों से मिल जुलकर रहते थे। 1998 में यूनिट के कम लोगों को कंप्यूटर का ज्ञान था। लेकिन हनीफ उसमें भी आगे थे। वह कंप्यूटर का काम झट से कर देते थे। बहुत सुंदर गाते थे, इस तरह कम समय में सभी उनके कायल हो गए थे। उन्होने यूनिट के लिए एक जैज बैंड बनाया था। शहीद होने के बाद बैंड का नाम उन्हीं के नाम पर रखा गया। लद्दाख में ड्यूटी खत्म करने के बाद कैप्टन हनीफुद्दीन को पोस्ट कमांडर के तौर पर सियाचिन में तैनात किया गया था। यहां वो दुश्मनों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
दुश्मन के दांत खट्टे करने वाले जांबाज के समक्ष घर चलाने का संकट 
कारगिल में तोलोलिंग चोटी पर 22 साल पहले पाकिस्तानी घुसपैठियों के छक्के छुड़ाने के दौरान घायल हुए दो राजपूताना राइफल्स के जांबाज लांस नायक (सेवानिवृत) सतबीर सिंह के समक्ष आज घर चलाने का संकट पैदा हो गया है। सेना से मिलने वाली पेंशन कम पड़ने पर उनको घर चलाने के लिए अपने एक बेटे को पढ़ाने के बजाए उससे निजी कंपनी में ड्राइवर की नौकरी करानी पड़ रही है। कोरोना महामारी के कारण उनकी जूस की दुकान बंद हो गई है।

दिल्ली देहात के मुखमेलपुर गांव निवासी सतबीर सिंह कहते है कि निरंतर महंगाई बढ़ रही है और महंगाई को देखते हुए सेना से मिलने वाली पेंशन काफी कम है। उन्होंने पेंशन से गुजारा नहीं होने पर कई साल पहले अपने गांव में ही जूस की दुकान खोली थी, लेकिन कोरोना महामारी के कारण उनकी दुकान बंद हो गई है। उनका कहना है कि कोरोना महामारी के कारण गत सवा साल के दौरान दो बार लॉकडाउन होने पर उन्हें काफी दिनों तक दुकान बंद करनी पड़ी। इसके अलावा अनलॉक आरंभ होने पर उन्होंने जब दुकान खोली तो कोरोना महामारी के कारण ग्राहक कम आए। इस कारण उनके समक्ष दुकान का किराया देने के लाले पड़ गए।

वह बताते है कि अब घर चलाने के लिए उन्होंने अपने एक बेटे से एक कंपनी में ड्राइवर की नौकरी करानी आरंभ की है, क्योंकि सेना से मिलने वाली पेंशन से परिवार का गुजारा नहीं हो रहा है। वह अपने दूसरे बेटे को पढ़ा रहे है। वह बताते है कि कारगिल युद्ध के बाद वह सेवानिवृत कर दिए गए, लेकिन उनको पूरी पेंशन नहीं दी गई। वह काफी वर्षों तक इस संबंध में लड़ाई लड़ते है। उनके संबंध में चार साल पहले संसद में मुद्दा उठने के बाद उन्हें पूरी पेंशन मिलनी शुरू हुई, लेकिन उन्हें पेंशन की बकाया राशि पूरी नहीं मिली है। उनकी अपेक्षा एवं संघर्ष देखकर उनके दोनों बेटों ने सेना में जाने से मना कर दिया।

कारगिल युद्ध में घायल होने के बाद सतबीर सिंह को सबसे पहले कश्मीर स्थित सेना के अस्पताल में भर्ती कराया गया था, लेकिन दो दिन बाद उन्हें वहां से दिल्ली छावनी स्थित बेस अस्पताल में भेजा गया। उनके पैर में कई गोली लगी होने पर उन्हें आरआर अस्पताल में स्थानांतरित कर दिया गया था। वहां वह कई माह तक भर्ती रहे।