दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा : देश में समान नागरिक संहिता की जरूरत. लागू करने का सही वक्त
अदालत ने सुनवाई के दौरान कहा कि आर्टिकल 44 में जिस यूनिफार्म सिविल कोड की उम्मीद जताई गई है, अब उसे हकीकत में बदलना चाहिए।
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दिल्ली हाईकोर्ट ने देश में समान नागरिक संहिता लागू करने की जरूरत बताते हुए कहा है कि इसे लागू करने का यह सही वक्त है। हाईकोर्ट ने कहा, भारतीय समाज में धर्म, जाति, विवाह आदि की पारंपरिक बेड़ियां टूट रहीं हैं।
युवाओं को अलग-अलग पर्सनल लॉ से उपजे विवादों के कारण शादी और तलाक के मामले में संघर्ष का सामना न करना पड़े। ऐसे में कानून लागू करने का यह सही समय है। कोर्ट ने समान नागरिक संहिता को लागू करने के लिए केंद्र सरकार को जरूरी कदम उठाने का निर्देश दिया है।
जस्टिस प्रतिभा एम. सिंह की पीठ राजस्थान की मीणा जनजाति की महिला और उसके हिंदू पति की तलाक की याचिका पर सुनवाई कर रही है। इस दौरान पीठ ने कहा, आधुनिक भारतीय समाज में धीरे-धीरे जाति, धर्म और समुदाय का भेद मिट रहा है। इस बदलाव के कारण देश के युवाओं को शादी, तलाक और उत्तराधिकार आदि के मामलों में परेशानियों से बचाने के लिए समान नागरिक संहिता जरूरी है।
नागरिकों को विभिन्न पर्सनल लॉ में विरोधाभास के कारण संघर्ष से बचाना है। अदालत ने निर्देश दिया कि इस आदेश की जानकारी केंद्र सरकार के विधि एवं न्याय मंत्रालय के सचिव को दी जाए, ताकि वह आवश्यक कार्रवाई करें।
मौजूदा मामले में सामने आया विरोधाभास
मौजूदा मामले में भी अलग-अलग कानून का विरोधाभास सामने आने पर हाईकोर्ट ने यह आवश्यकता जताई। इस जोड़े की शादी 24 जून, 2012 को हुई थी। पति ने 2 दिसंबर, 2015 को परिवार अदालत में तलाक की याचिका दायर की। महिला का पति हिंदू विवाह कानून के मुताबिक तलाक चाहता था। लेकिन महिला का कहना है कि वह मीणा समुदाय से ताल्लुक रखती है, इसलिए उस पर हिंदू मैरिज एक्ट लागू नहीं होता।
बाद में फैमिली कोर्ट ने हिंदू मैरिज एक्ट-1955 का हवाला देते हुए याचिका को खारिज कर दिया। फैसले में कहा गया कि महिला राजस्थान की अधिसूचित जनजाति से है, इसलिए उस पर हिंदू विवाह कानून लागू नहीं होता। महिला के पति ने फैमिली कोर्ट के फैसले को 28 नवंबर, 2020 को हाईकोर्ट में चुनौती दी।
हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को दरकिनार करते हुए पति की याचिका को स्वीकार करते हुए कहा कि इस तरह के मामलों के लिए ही ऐसे कानून की जरूरत है, जो सभी के लिए समान हो। कोर्ट ने यह भी कहा, उसके सामने ऐसा कोई दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किया गया है, जिससे पता चले कि मीणा जनजाति समुदाय के ऐसे मामलों के लिए कोई विशेष अदालत है।
देश में क्या है मौजूदा स्थिति
भारत में फिलहाल संपत्ति, शादी, तलाक और उत्तराधिकार जैसे मामलों के लिए हिंदू और मुसलमानों का अलग-अलग पर्सनल लॉ है। इस कारण एक जैसे मामले को निपटाने में पेचीदगियों का सामना करना पड़ता है। देश में लंबे अरसे से समान नागरिक संहिता लागू करने को लेकर बहस होती रही है। खासकर भाजपा पुरजोर तरीके से इस मुद्दे को उठाती रही है, लेकिन कांग्रेस व अन्य विपक्षी दल इसका विरोध करते रहे हैं। इसके सामाजिक और धार्मिक असर को लेकर इन दलों की अपनी-अपनी सोच है।
क्या है समान नागरिक संहिता
संविधान के अनुच्छेद 36 से 51 तक के द्वारा राज्यों को कई मुद्दों पर सुझाव दिए गए हैं। जस्टिस प्रतिभा एम. सिंह ने इस कानून की जरूरत पर बल देते हुए कहा, संविधान के अनुच्छेद 44 में उम्मीद जताई गई है कि राज्य अपने नागरिकों के समान नागरिक संहिता की सुरक्षा करेगा। अनुच्छेद की यह भावना महज उम्मीद बनकर ही नहीं रह जाए। अनुच्छेद 44 राज्य को सही समय पर सभी धर्मों के लिए समान नागरिक संहिता बनाने का निर्देश देता है।
शाहबानो केस से पहली बार सुर्खियों में आया
हाईकोर्ट ने समान नागरिक संहिता की जरूरत के लिए ऐतिहासिक शाहबानो मामले सहित सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों का हवाला दिया। दरअसल देश में समान नागरिक संहिता का मामला पहली बार 1985 में शाहबानो केस के बाद सुर्खियों में आया। सुप्रीम कोर्ट ने तलाक के बाद शाहबानो के पूर्व पति को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था। शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में कहा था कि समान नागरिक संहिता लागू होनी चाहिए। हालांकि तब राजीव गांधी की सरकार ने संसद में विधेयक पास करा कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया था।