पक्षी व मनुष्य: ये रिश्ता क्या कहलाता है
पक्षियों के बारे में सबसे अच्छी बात यह है कि उन्हें कहीं भी देखा जा सकता है। पक्षियों की विविधता देखने के लिए किसी नजदीकी जंगल अथवा राष्ट्रीय उद्यान में महंगी यात्रा की जरूरत नहीं होती है। रोज की भाग-दौड़ भरी जिंदगी में अगर थोड़ा रुक कर देखें तो पता चलता है, कि दिन की हर घड़ी हम किसी न किसी रूप से पक्षियों के साथ अपनी जिंदगी साझा करते हैं। कोविड-19 के इस दौर में जब कई लोगों की गतिविधियां घरों तक ही सीमित हो कर रह गईं, प्रकृति प्रेमियों की बिरादरी में इसी साझेदारी को समझने करने के लिए घर बैठे बर्ड-वाचिंग का एक चलन सा चल गया है। अंग्रेजी शब्द बर्ड-वाचिंग का तात्पर्य किसी क्षेत्र विशेष में आस-पास दिखने वाली पक्षियों की प्रजातियों को पहचानना एवं उनकी संख्या का ब्यौरा रखना है।
घर बैठे बर्ड-वाचिंग के इस चलन की व्यापकता का अंदाजा इसी बात से लगता है कि भारत में पाई जाने वाली विभिन्न पक्षी-प्रजातियों का ब्यौरा रखने वाली ऑनलाइन पोर्टल birdcount.in ने 'मासिक ई-बर्डिंग चैलेंज' का आयोजन शुरू किया है। इसके अंतर्गत पक्षी प्रेमियों से एक निश्चित समय के दौरान हर रोज अपने घरों के आस-पास मिलने वाली पक्षी-प्रजातियों एवं उनके व्यवहार संबंधित जानकारियों को एक सूची के रूप में साझा करने को प्रेरित किया गया। देशभर से संग्रहित पक्षियों से संबंधित इस प्रकार की जानकारी पक्षियों के व्यापक वितरण को समझने व उनके संरक्षण में बहुत उपयोगी होती है।
घर बैठे बर्ड-वाचिंग का मेरा अनुभव भी हर दिन काफी अनोखा रहता है। सवेरे की नींद कई बार तीतर की आवाज से ही खुल जाती है। मॉनसून की बारिश के कारण इस बार बाड़ी में डाले सब्जियों के बीज अब स्वस्थ पौधे बन चुके हैं। पौधों की विविधता बाड़ी में हर दिन अलग-अलग प्रजातियों के ढेरों पक्षियों को आकर्षित करती है। संख्या के हिसाब से लगभग 25-30 पक्षी-प्रजातियों को यहां किसी भी दिन देखा जा सकता है। यदि इन पक्षियों की गतिविधियों को ध्यान से परखा जाए तो मालूम पड़ता है कि प्रत्येक पक्षी किसी विशिष्ट कारण से ही यहां आता है। वास्तविक रूप में सब्जियों का यह बाग एक छोटे पारिस्थितिकी तंत्र को दर्शाता है, जिनमें विभिन्न प्रजातियां प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आपस में व्यवहार प्रदर्शित कर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती मालूम होती हैं।
एक गहरे काले एवं भूरे रंग की चिड़िया, जिसमें नर के कंधों पर एक सफेद निशान होता है, नियमित रूप से प्रतिदिन पौधों की निचली शाखाओं व जमीन पर फुदकती दिखाई देती है। इस भारतीय रॉबिन के लिए ये बाग उसके भोजन का एक मुख्य स्रोत हैं जो उसे पत्तियों व कच्ची शाखाओं को खा रहे कीटों के रूप में मिलता है। कीटों की इस दावत का फायदा उठाने में साधारण मैना व बंक मैना भी पीछे नहीं रहती हैं। पौधों पर फूलों का आगमन विशेष प्रकार के परागणको जैसे मधुमक्खियां, ततैया और होर्नेट को आकर्षित करता हैं। परागणको का यह समूह एक विशेष शिकारी को न्योता देता है।
दोपहर की कड़ी धूप में भी लंबी नुकीली पूंछ वाली हरी बी-ईटर के झुंड नजदीकी बिजली के तार पर चहचहाते दिखाई देते हैं। ये बी-ईटर हवा में उड़ती किसी भी मधुमक्खी या ततैये को दूर से ही भांपकर पकड़ लेती हैं। एक बैंगनी सनबर्ड् भिंडी के चटक पीले फूलों का नियमित मेहमान है। सामान्य टेलर-बर्ड की तीखी आवाज अकसर शाम को ध्यान खींचती है परंतु छोटे आकार का ये फुर्तीला पक्षी घने पत्तों के बीच बमुश्किल ही दिखाई देता है। बाजरी के सिट्टों में दाने लगने के बाद तो मानो पक्षियों का मेला लग गया हो। प्रतिदिन भारतीय सिल्वर बिल, गौरैया, बयां, रेड वेंटेड बुलबुल, व्हाइट चिक्ड बुलबुल एवं तोते के झुंड बाजरी के डंठलो पर झूलते नजर आते हैं।
इस दौरान टिंटोडी का एक जोड़ा लंबे समय तक पूरे परिवार का आकर्षण केंद्र बना रहता है। मारवाड़ी बोली का यह नाम इसे शायद इसकी कर्कश व तीखी आवाज के कारण ही दिया गया है। इस जोड़े ने पड़ोस की एक बाड़ी की दीवार पर घोंसला बनाया है। यदि पक्षियों में उम्दा घोंसला बनाने की प्रतिस्पर्धा रखी जाए तो टिंटोडी का स्थान शायद सबसे पीछे ही रहेगा, क्योंकि टिंटोडी का घोंसला एकत्रित किए कुछ छोटे कंकरों का समूह मात्र होता है जिसके मध्य में मादा दो से तीन अंडे देती हैं।
सम्पूर्ण प्रजनन काल के दौरान नर व मादा दोनों भोजन-पानी की तलाश में अधिक दूर नहीं जाते हैं। बच्चे अंडे से बाहर आने के कुछ दिनों में ही मैदान में भागने लगते हैं। इनका रंग आस-पास के आवास से मिलता जुलता होता है, जो कि इन्हें शिकारी की नजरों से बचाता है। वयस्क अपने बच्चे की सुरक्षा के लिए काफी सचेत व आक्रामक रहते हैं एवं किसी भी तरह का खतरा होने पर बड़े जीवों पर भी हमला करने से नहीं हिचकिचाते। टिंटोडी को अपने बच्चे पालते देखना हमारा हर दोपहर का जरूरी काम बन चुका था।
एक दोपहर दोनों वयस्क असामान्य रूप से चहचहाते इधर-उधर उड़ रहे थे। उनका यह आक्रामक स्वभाव देख मानो लग रहा हो कि कहीं कोई परभक्षी घुस आया हो। हालांकि पूरे दिन की खोज व इंतजार के बाद भी ना ही किसी परभक्षी का सुराग मिला न ही बच्चों का। सांझ होते दोनों वयस्क थक कर वापस उसी स्थान पर आ गए जहां उन्होंने कभी अपना घोंसला बनाया था। इस साल दूसरी बार भी यह जोड़ा अपने बच्चों को पालने में नाकाम हो गया था।
शायद अगले प्रजनन काल में उनके ये प्रयास सफल हो सकें। घर में टिंटोडी के बच्चों का अचानक यूं ही गायब हो जाना कुछ दिनों तक चर्चा का विषय रहा एवं अंत में सर्वमत से एक गोह को इस कृत्य का दोषी माना गया जो काफी दिनों से इस इलाके सक्रिय था। माहौल सामान्य होने के कुछ ही दिनों में घर के सामने विलायती बबूल की झाड़ी के नीचे सवेरे की नींद से जगाने वाले उस तीतर का भी घोंसला पाया गया।
छोटे शहरों की आभा यहां स्वछंद रूप से पाए जाने वाले जीवों की इसी विविधता में है जो यहां के निवासियों को झंझट भरी जिंदगी में भी किसी न किसी रूप में प्रकृति से जोड़े रखती है। औद्योगीकरण के इस दौर में भी इस तरह की जैव-विविधता को घर के निकट पाना एक सौभाग्य ही माना जा सकता है।