बिखराव का शिकार विपक्ष: बिहार चुनाव के बाद कई विपक्षी दलों में कांग्रेस के प्रति अविश्वास और भी गहरा हो गया है
विपक्षी एकता की सबसे बड़ी बाधा क्षेत्रीय क्षत्रपों की महत्वाकांक्षा और एक-दूसरे के जनाधार को हथियाने की प्रतिस्पर्धा है। नीति और नीयत का यह दोष किसी विश्वसनीय विकल्प की संभावनाओं को निरस्त करता है। कांग्रेस लंबे समय से तमिलनाडु में हाशिये पर है।
आज भारत के विपक्षी दलों में परस्पर अविश्वास और बिखराव चरम पर है। विपक्ष का लगातार सिकुड़ते जाना लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए शुभ संकेत नहीं है। हालांकि यह भी सत्य है कि आज जो कांग्रेस हाशिये पर है, उसने भी लगभग 50 वर्ष तक विपक्ष विहीन शासन किया है। विपक्ष की नगण्य उपस्थिति ने ही कांग्रेस के अंदर अधिनायकवादी प्रवृत्तियों को पैदा किया और अंतत: 25 जून,1975 के दिन आपातकाल को संभव किया। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में इसी कांग्रेस का प्रदर्शन इतना निराशाजनक था कि वह नेता प्रतिपक्ष पदप्राप्ति की संवैधानिक अर्हता को भी पूरा न कर सकी। साथ ही आज वह उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, तमिलनाडु जैसे बड़े राज्यों और तेलंगाना, ओडिशा, झारखंड, दिल्ली जैसे छोटे राज्यों में अप्रासंगिक हो गई है। गौरतलब है कि इन राज्यों में लोकसभा की आधी सीटें हैं। कांग्रेस के सिकुड़ने के लिए सोनिया गांधी का पुत्रमोह जिम्मेदार है। उन्हेंं राहुल गांधी के अलावा कोई अन्य नेता कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए उपयुक्त नहीं लगता, जबकि कांग्रेस अध्यक्ष और जननेता के रूप में राहुल गांधी की योग्यता और क्षमता जगजाहिर है। पिछले दिनों कांग्रेस के वरिष्ठतम नेताओं, जिन्हेंं बाद में जी-23 कहा गया, ने सार्वजनिक पत्र लिखकर इन्हीं सब बातों पर चिंता व्यक्त करते हुए पार्टी में अंतरिम व्यवस्था की जगह स्थायी अध्यक्ष और आंतरिक लोकतंत्र की बहाली की मांग की थी। इसके कारण ही कभी सार्वदेशिक और सर्वाधिक सशक्त पार्टी रही कांग्रेस की पंगुता, क्रमिक अवसान, आंतरिक असंतोष, भयावह गुटबाजी और कार्यकर्ताओं की हताशा के रूप में दृष्टिगोचर हो रहे हैं।
कांग्रेस में गुटबाजी पार्टी को निरंतर कमजोर कर रही है
पिछले साल मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ-दिग्विजय सिंह की खेमेबंदी और वर्चस्व की लड़ाई की भेंट चढ़ गई। अंतत: ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस के बाहर अपना भविष्य देखने को विवश होना पड़ा। राजस्थान में भी मप्र की पटकथा का दोहराव होते-होते बचा है। हालांकि अभी इस राजनीतिक प्रहसन का पटाक्षेप नहीं हुआ है। माना जा रहा है कि सचिन पायलट कभी भी ज्योतिरादित्य सिंधिया की राह पर चल सकते हैं और अशोक गहलोत सरकार की नियति भी कमलनाथ सरकार जैसी हो जाएगी। पंजाब में मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू-प्रताप सिंह बाजवा की खींचतान और हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा और रणदीप सिंह सुरजेवाला, किरण चौधरी, कुमारी शैलजा आदि की गुटबाजी पार्टी को निरंतर कमजोर कर रही है। अशोक तंवर जैसे दलित नेता को र्नििवकल्प होकर कांग्रेस छोड़नी पड़ी। असम सहित उत्तर-पूर्व के अधिकांश राज्यों में कभी कांग्रेस नेता रहे हेमंत बिस्व सरमा ने अकेले कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया है।
राष्ट्रीय जनता दल ने बिहार में मिली हार का ठीकरा कांग्रेस के सिर फोड़ा
बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद तमाम विपक्षी दलों में कांग्रेस पार्टी के प्रति अविश्वास और संशय और भी गहरा हो गया है। यह अकारण नहीं है कि राष्ट्रीय जनता दल ने बिहार में मिली हार का ठीकरा कांग्रेस के सिर फोड़ा है। उसने कहा कि बिहार चुनाव के दौरान राहुल गांधी ‘पिकनिक’ मना रहे थे। उत्तर प्रदेश 80 लोकसभा सीटों के कारण चुनावी दृष्टि से देश का सबसे महत्वपूर्ण राज्य है। पिछले लोकसभा चुनाव में चिर-प्रतिद्वंद्वी समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने महागठबंधन बनाकर चुनाव लड़ा। इसमें पश्चिमी उप्र में प्रभावी राष्ट्रीय लोकदल भी शामिल हुआ, लेकिन मात्र 15 सीटों पर सिमटकर यह महागठबंधन बिखर गया और आपसी आरोप-प्रत्यारोप का लंबा दौर चला। उधर चाचा-भतीजे की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की टकराहट से समाजवादी पार्टी में भी गृह-कलह और टूट-फूट जारी है। असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन की अखिल भारतीय सक्रियता और उपस्थिति ने तथाकथित सेक्युलर र्पािटयों-कांग्रेस, राजद, सपा, बसपा, सीपीएम और तृणमूल कांग्रेस आदि की नींद उड़ा दी है। अभी तक ये दल मुसलमानों को एकमुश्त वोट बैंक की तरह अपने खाते में जोड़कर अपना चुनावी गणित साधते आए हैं, किंतु मुसलमानों के मसीहा के रूप में ओवैसी के उभार ने उनके चुनावी समीकरण और संभावनाओं को गड़बड़ा दिया है। अभी उप्र में भाजपा का कोई आसन्न और विश्वसनीय विकल्प नहीं है।
महाराष्ट्र में घटक दलों में अंदरूनी कलह और खींचतान चल रही है
महाराष्ट्र एक और बड़ा राज्य है। वहां उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस की महाविकास अघाड़ी की सरकार है। इसके घटक दलों में अंदरूनी कलह और खींचतान वक्त-बेवक्त दिखाई-सुनाई पड़ती रहती है। पूर्व में कर्नाटक की कांग्रेस-जनता दल (सेक्युलर) सरकार भी इसी प्रकार के अविश्वास और अंतरविरोधों की शिकार हुई। पिछले लोकसभा चुनाव में बंगाल में भाजपा को मिली भारी चुनावी सफलता से ममता बनर्र्जी ंचतित हैं। वहां वामपंथी दल और कांग्रेस गठबंधन बनाकर विधानसभा चुनाव लड़ने वाले हैं। त्रिकोणीय मुकाबले में भाजपा को लाभ मिलना स्वाभाविक है। तमिलनाडु की राजनीति लंबे समय से दो ध्रुवीय रही है। वहां दो चिर-प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल द्रमुक और अन्नाद्रमुक सत्ता की अदला-बदली करते रहते हैं। हालांकि इन दलों के सर्वमान्य नेताओं एम करुणानिधि और जे जयललिता के निधन के बाद नई राजनीतिक संभावनाओं और समीकरणों का सूत्रपात हो सकता है। केरल और तमिलनाडु में जमीन तलाशती भाजपा की नजर इस नए ‘स्पेस’ पर है। कांग्रेस लंबे समय से तमिलनाडु में हाशिये पर है। दरअसल विपक्षी एकता की सबसे बड़ी बाधा क्षेत्रीय क्षत्रपों की महत्वाकांक्षा और एक-दूसरे के जनाधार को हथियाने की प्रतिस्पर्धा है। नीति और नीयत का यह दोष किसी विश्वसनीय विकल्प की संभावनाओं को निरस्त करता है।